अंजान की एक नई ग़ज़ल - Latest Sad Ghazal in Hindi
उन्होंने दिया था जो ज़ख्म वो अब बे-निशान है क्या?
बताओ इन बे-दिलों में अब भी कोई अरमान है क्या?
सीने पर वार किया है पहली मरतबा किसी शख़्स ने,
देखलो किसी अपने के हाथ से चलती कमान है क्या?
वो समझते हैं अपने आप को खुदा से भी बड़ा,
ख़ाक़ नहीं होंगे आख़िरत में ऐसा कोई गुमान है क्या?
उड़ना चाहता है इक परिंदा इस पिंजरे से,
देख आओ कहीं महफूज़ आसमान है क्या?
क्यों डरता है 'अंजान' तू इन छोटे-मोटे ज़लज़लाओं से,
नई नई मरम्मत वाला तुम्हारा मकान है क्या.??
~ अंजान
शब्दार्थ:
बे-निशान - निशान न हो
बे-दिल - दिल की चाह न हो
मरतबा - (पहली) बार, दफा
कमान - धनुष
ख़ाक़ - धूल, मिट्टी, राख
गुमान - संदेह, शंका या घमण्ड
महफूज़ - सुरक्षित
ज़लज़ला - भूकंप
मरम्मत - बिगड़ी हुई वस्तु सुधारना, (रिपेरिंग)
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